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डेढ़ डिग्री की हद में नहीं रहे, 'तो नहीं बच पाएंगे इंसान'

अशोक कुमार, शर्म अल शेख से
१५ नवम्बर २०२२

भीषण गर्मी, बाढ़, सूखा,जंगल की आग और तूफानों के रूप में इस साल जितनी आपदाएं आईं, वे आने वाले कल की भयानक तस्वीर पेश करती हैं. वैज्ञानिक कहते हैं कि पृथ्वी की बचाना है तो 1.5 डिग्री सेल्सियस की हद में रहना होगा.

Ägypten l COP27 Konferenzbereich im ägyptischen Ferienort Sharm el-Sheikh
तस्वीर: Sayed Sheasha/REUTERS

मिस्र के शर्म अल शेख में चल रहे संयुक्त राष्ट्र के जलवायु सम्मेलन में दुनिया भर के नीति निर्माता, वैज्ञानिक और पर्यावरण कार्यकर्ता इस बात पर मंथन कर रहे हैं कि दुनिया को तापमान वृद्धि की डेढ डिग्री की सीमा में कैसे रखा जाए?

क्या है 1.5 डिग्री लक्ष्य

मौजूदा जलवायु संकट की शुरुआत उस वक्त से होती है जब इंसान की जिंदगी में मशीनें आईं. ये 1850 के दशक की बात है. ऐसी मशीनें जो कोयला या बिजली से चलती थीं. इसमें बाद में प्राकृतिक गैसें और कच्चा तेल भी उद्योगों का आधार बन गए. ये सारी चीजें जमीन से निकलती हैं, इसीलिए इन्हें जीवाश्म ईंधन कहते हैं, लेकिन इन ईंधनों के जलने से भारी मात्रा में कार्बन का उत्सर्जन होता है. इससे हमारी पृथ्वी लगातार गर्म हो रही है.

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जलवायु वैज्ञानिकों का कहना है कि अगर 1850 के दशक के औसत तापमान को आधार मानें, तो इस सदी के आखिर तक पृथ्वी के तापमान में वृद्धि 1.5 डिग्री सेल्सियस से ज्यादा नहीं होनी चाहिए. इसलिए फिलहाल जलवायु संरक्षण की सारी बहस में 1.5 डिग्री सेल्सियस के भीतर रहने पर इतना जोर दिया जा रहा है. नई दिल्ली से शर्म अल शेख के जलवायु सम्मेलन में हिस्सा लेने आए आपदा प्रबंधन विशेषज्ञ एम रमेश बाबू कहते हैं, "1.5 डिग्री असंभव दिखाई देता है, लेकिन यह असंभव है नहीं. यह संभव हो सकता है अगर इसके लिए पैसा हो, जागरूकता हो, कार्बन को कम किया जाए और इसके लिए जरूरी टेक्नोलॉजी लागू की जाए."

कार्बन उत्सर्जन करने के उपायों पर दुनिया भर के प्रतिनिधि शर्म अल शेख में चर्चा कर रहे हैंतस्वीर: Mohamed Abd El Ghany/REUTERS

भारत में इस साल पड़ी गर्मी हो या फिर यूरोप में पड़ा 500 साल का सबसे बुरा सूखा या फिर पाकिस्तान में आई विनाशकारी बाढ़, ये सब जलवायु परिवर्तन के परिणाम हैं. दुनिया के तेजी से पिघलते ग्लेशियर समुद्री के जलस्तर को बढ़ा रहे हैं, और दुनिया के कई इलाके धीरे धीरे समंदर में डूबते जा रहे हैं. यह हाल अभी है जब हमने 1.2 डिग्री सेल्सियस वृद्धि के स्तर को पार किया है. मतलब साफ है अगर दुनिया ने कदम नहीं उठाए तो भविष्य में और मुश्किल हालात होंगे.

रमेश बाबू कहते हैं, "जब आप भारत को देखते हैं तो हमारे यहां पिछले 12 साल में बहुत सारी आपदाएं आई हैं. और अगर आपके पास 1.5 डिग्री सेल्सियस का कोई लक्ष्य नहीं है, तो यह सब और ज्यादा बढ़ सकता है और यह पृथ्वी के लिए बहुत खतरनाक होगा."

पर्याप्त नहीं 1.5 डिग्री लक्ष्य

शर्म अल शेख के जलवायु सम्मेलन में दुनिया के कोने-कोने से लोग हैं, और सब किसी ना किसी तरह अपने इलाकों में जलवायु परिवर्तन के परिणाम झेल रहे हैं. फिर भी जलवायु की बहस में उनकी अपनी अपनी जरूरतें और हित हैं. यही वजह है कि 1.5 डिग्री सेल्सियस के लक्ष्य तक रास्ता बनाना एक चुनौती है. आईपीसीसी का अनुमान कहता है कि अगर दुनिया के तापमान में वृद्धि 1.7 डिग्री से 1.8 तक हो जाती है तो दुनिया की आधी आबादी गर्मी और नमी के चलते जानलेवा खतरे का सामना करेगी.

शर्म अल शेख में प्रदर्शन करते जलवायु कार्यकर्ता तस्वीर: Mohammed Salem/REUTERS

सिंडी सिमानगुनसोंग इंडोनेशिया के पापुआ इलाके में वर्षा वनों के संक्षरण के लिए काम करती हैं. वह 1.5 डिग्री के लक्ष्य को नाकाफी मानती हैं, लेकिन कहती हैं कि कोई लक्ष्य ना होने से कुछ लक्ष्य होना अच्छा है. सिमानगुनसोंग कहती हैं, "बेशक यह पर्याप्त नहीं है. यह तो न्यूनतम है, जो वैज्ञानिकों ने बताया है. हम इंडोनेशिया के बारे में बहुत सारी बातें कह सकते हैं. हमारे यहां बहुत सूखा पड़ा, बहुत सारी फसलें बर्बाद हुईं. इंडोनेशिया दुनिया में सबसे बड़े कृषि प्रधान देशों में से है. हमारे यहां बहुत से तटीय इलाके और छोटे द्वीप हैं. उन पर इस जलवायु संकट का बहुत असर हुआ है. इसीलिए 1.5 तो न्यूनतम है, लेकिन अगर हम इस लक्ष्य को भी नहीं पा सके, तो मुझे नहीं लगता कि हम लोग इस दुनिया में बच पाएंगे.

बदलाव जरूरी

पेरिस में 2015 में हुए जलवायु सम्मेलन में डेढ़ डिग्री सेल्सियस के भीतर रहने का लक्ष्य तय किया गया था. लक्ष्य तय करना एक बात है और उसे हासिल करना बिल्कुल दूसरी. जलवायु परिवर्तन पर जो संयुक्त राष्ट्र का पैनल है वह कहता है कि दुनिया जिस रफ्तार से जा रही है, उसे देखते हुए इस सदी के आखिर तक तो क्या, हम दस साल में ही डेढ़ डिग्री की सीमा से बाहर निकल जाएंगे.

साफ है, इंसानी गतिविधियों से पर्यावरण में हो रहा बदलाव प्राकृतिक आपदाओं के रूप इंसानों पर ही भारी पड़ रहा है. इसलिए इंसानों को खुद को ही बदलना होगा. जरूरत ऐसे स्रोतों की तरफ जाने की है जो ऊर्जा भी पैदा करें और पर्यावरण को नुकसान भी ना पहुंचाएं. इस बदलाव का रास्ता तैयार करने में जलवायु सम्मेलनों की अहम भूमिका है. यह बदलाव सामाजिक, व्यक्तिगत और नीतिगत, सभी स्तरों पर करना होगा.

 

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