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ग्लोबल वार्मिंग का खतरा बढ़ाती झूम खेती की परंपरा

प्रभाकर मणि तिवारी
९ दिसम्बर २०२२

पूर्वोत्तर के आदिवासी समूहों में सदियों पुरानी झूम खेती की परंपरा ग्लोबल वार्मिंग को बढ़ावा देने की प्रमुख वजह मानी जा रही है. इस इलाके में जलवायु परिवर्तन का असर देश के दूसरे हिस्सों के मुकाबले ज्यादा नजर आने लगा है.

Indien | Jhum-Anbau
तस्वीर: Prabhakar Mani Tewari/DW

साल में कई बार पूर्वोत्तर भारत में बेमौसम आने वाली बाढ़ और जमीन धंसने की घटनाओं को जलवायु परिवर्तन और ग्लोबल वार्मिंग से जोड़ कर देखा जाता है. इलाके में झूम खेती की परंपरा रही है और उसे ग्लोबल वार्मिंग का कारण बताया जाने लगा है. यहां के आदिवासी समूह बहुत पहले से इस तरह की खेती करते आ रहे हैं.  

क्या है झूम की खेती

झूम यानी हर साल जगह बदल कर सीढ़ीनुमा जगह पर होने वाली खेती पूर्वोत्तर भारत में सदियों पुरानी परंपरा रही है. इलाके की भौगोलिक बसावट भी इसके लिए मुफीद रही है. हालांकि अब जलवायु परिवर्तन के बढ़ते असर ने इस परंपरा को खतरे में डाल दिया है. इलाके में झूम की खेती और जलवायु परिवर्तन पर इसके प्रतिकूल असर को लेकर सवाल उठ रहे हैं. दावा किया जा रहा है कि इस पारंपरिक खेती से इलाके में प्राकृतिक संसाधन तेजी से नष्ट हो रहे हैं और इससे ग्लोबल वार्मिंग को बढ़ावा मिल रहा है.

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झूम खेती के पारंपरिक तरीके में पहले पेड़ों और वनस्पतियों को काटकर उनको जला दिया जाता है और साफ की गई जमीन की जुताई कर बीज बो दिए जाते हैं. करीब दो-तीन वर्षों यानी मिट्टी के उपजाऊ रहने तक वहां खेती की जाती है. उसके बाद उसे खाली छोड़ दिया जाता है. वहां दोबारा पेड़-पौधे उग आते हैं. उसके बाद दूसरी जगह जंगली जमीन को इसी तरीके से साफ कर खेती के लिए नई जमीन हासिल की जाती है और वहां भी दो-तीन साल तक खेती की जाती है. यानी हर दो-तीन साल बाद खेती की जमीन बदल जाती है. अक्सर यह दावा किया जाता है कि झूम के कारण क्षेत्र के बहुमूल्य प्राकृतिक संसाधनों का नुकसान हुआ है.

पूर्वोत्तर भारत में झूम खेती की परंपरा सदियों से हैतस्वीर: Prabhakar Mani Tewari/DW

झूम खेती पर जलवायु परिवर्तन का असर

जलवायु परिवर्तन ने झूम खेती की परंपरा पर बेहद प्रतिकूल असर डाला है. मौसमविज्ञानियों का कहना है कि मिट्टी की उर्वरता में लगातार कमी और अनियमित बारिश के कारण यह परंपरा भारी चुनौतियों से गुजर रही है. इससे उपज में भी कमी आ रही है. बीते कुछ वर्षों से जलवायु परिवर्तन के कारण झूम एक कम उत्पादक प्रणाली बन गई है और किसान अपने खेतों से साल भर का अनाज जुटाने के लिए जूझते नजर आते हैं. वे जीवित रहने और अपनी खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए संघर्ष कर रहे हैं और खुद को स्थिति के अनुकूल बनाने की कोशिश कर रहे हैं.

दरअसल, उनके पास कोई विकल्प नहीं है. जलवायु परिवर्तन के कारण झूम खेती का चक्र भी घट रहा है. यानी पहले जहां ऐसी किसी जमीन पर दो से तीन साल तक खेती होती थी वहीं अब यह समय घटने लगा है और साथ ही पैदावार भी कम हो गई है. इसका प्रतिकूल असर इलाके के पारिस्थितिकी तंत्र पर पड़ रहा है.

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इस प्रणाली का विरोध करने वालों की दलील है कि इलाके के जंगलों में आग लगने की घटनाएं लगातार बढ़ रही हैं. इसकी वजह यह है कि किसी इलाके में झूम की खेती से पहले वहां लगे पेड़ों और वनस्पतियों को जला कर साफ किया जाता है. इससे पैदा होने वाली कार्बन डाइऑक्साइड ग्लोबल वार्मिंग के असर को कई गुना बढ़ा देती है.

फायदे और नुकसान

झूम की खेती को पूर्वोत्तर के पर्वतीय इलाके में रहने वाले आदिवासी समूहों के लिए जीवन रेखा और आजीविका का प्रमुख जरिया माना जाता है.यह पारंपरिक खेती के मुकाबले आसान भी  है. इस प्रणाली के तहत फसलें आसानी से पैदा होती है और बाढ़ या सूखे का भी असर नहीं होता. जिन इलाकों में यह खेती होती है वहां प्राकृतिक झरने ही सिंचाई के प्रमुख स्त्रोत हैं.

सीढ़ीनुमा खेतों में बोई जाती हैं फसलेंतस्वीर: Prabhakar Mani Tewari/DW

इस प्रणाली के अपने नुकसान भी हैं. पहला और सबसे बड़ा नुकसान यह है कि इसके लिए जंगल को जलाया जाता है. मिसाल के तौर पर मेघालय के चेरापूंजी में झूम खेती के कारण एक हरा-भरा वन सूखी बंजर जमीन में बदल गया है. किसी भी इलाके में वन तैयार होने में लंबा समय लगता है. लेकिन इस खेती के लिए उनको महज कुछ दिनो में ही काट कर साफ कर दिया जाता है. जागरूकता और निगरानी के अभाव में उसके एवज में वृक्ष भी नहीं लगाए जाते. वनों के कटने के कारण मिट्टी के कटाव का खतरा बढ़ जाता है. इससे संबंधित इलाके में जमीन धंसने निचले इलाको में बाढ़ का खतरा कई गुना बढ़ जाता है.

यह प्रणाली मिट्टी से कार्बनिक पदार्थ और पोषक तत्व को कम कर देती है. झूम खेती के कारण क्षेत्र के बहुमूल्य प्राकृतिक संसाधनों का नुकसान हुआ है. इलाके में आबादी तेजी से बढ़ने के कारण झूम खेती के लिए उपलब्ध  जमीन लगातार सिकुड़ रही है. इस खेती के कारण जमीन में मौजूद पोषक तत्व भी लगातार कम होते रहते हैं और उसकी भरपाई का कोई ठोस इंतजाम नहीं किया जाता है. इसके अलावा बड़े पैमाने पर पेड़ों के कटने के कारण ग्लोबल वार्मिंग को बढ़ावा मिलता है. इस प्रणाली के कारण इलाके की जैव-विविधता पर भी प्रतिकूल असर पड़ता है.

पहले जिन इलाकों को खेती के बाद छोड़ दिया गया था वहां दोबारा पेड़ लगाने की दिशा में भी कोई पहल नहीं की गई है. पर्यावरणविदों का कहना है कि सदियों से जारी इस परंपरा पर पूरी तरह अंकुश लगाना तो संभव नहीं है. हालांकि किसानों की आजीविका का वैकल्पिक इंतजाम कर और उनमें वृक्षारोपण के प्रति जागरूकता पैदा कर नुकसान को कुछ हद तक कम जरूर किया जा सकता है.

क्या है समाधान

नार्थ ईस्टर्न रीजन कम्युनिटी रिसोर्स मैनेजमेंट प्रोजेक्ट के निदेशक मिहिन डोलो कहते हैं, "पूर्वोत्तर के आदिवासी समूहों में झूम खेती की परंपरा सदियों पुरानी है और इसका संबंध उनकी संस्कृति से भी है. लेकिन जब झूम की खेती इन समूहों के वजूद के लिए ही खतरा बनने लगे तो वैकल्पिक उपायों की तलाश जरूरी है. ऐसे में सरकार को गैर-सरकारी संगठनों के साथ मिल कर खेती और रोजगार के वैकल्पिक तरीके मुहैया कराने की दिशा में ठोस पहल करनी चाहिए."

पर्यावरणविदों का कहना है कि झूम की खेती के कारण ही इलाके में जमीन धंसने की घटनाएं भी बढ़ रही हैं. मणिपुर विश्वविद्यालय में मानव और पर्यावरण विज्ञान स्कूल के डीन प्रोफेसर ईबोतोम्बी सिंह कहते हैं, "झूम की खेती को खासकर हाईवे और रेलवे लाइन के नजदीक इलाकों से अन्यत्र ले जाया जाना चाहिए”.

मौसम विज्ञानी डॉ. प्रथमेश हाजरा कहते हैं, "बदलते दौर में झूम की खेती के तौर-तरीकों में बदलाव भी जरूरी है. परंपरा के नाम पर पर्यावरण के नुकसान पहुंचाने वाली इस प्रणाली को मनमाने तरीके से जारी नहीं रहने दिया जा सकता."

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